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ग़ज़ल
मिरे दिल में है कि पूछूँ कभी मुर्शिद-ए-मुग़ाँ से
कि मिला जमाल-ए-साक़ी को ये तनतना कहाँ से
अब्दुल मजीद सालिक
ग़ज़ल
शहज़ादी दुख़्त-ए-रज़ के हज़ारों हैं ख़्वास्त-गार
चुप मुर्शिद-ए-मुग़ाँ है किसे दूँ किसे न दूँ
अमीर मीनाई
ग़ज़ल
याँ बादा-ए-अहमर के छलकते हैं जो साग़र
ऐ पीर-ए-मुग़ाँ देख कि है सारी दुकाँ सुर्ख़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
बज़्म-ए-दोशीं को करो याद कि इस का हर रिंद
रौनक़-ए-बार-गह-ए-पीर-ए-मुग़ाँ गुज़रा है
अब्दुल मजीद सालिक
ग़ज़ल
वो मय दे दे जो पहले शिबली ओ मंसूर को दी थी
तो 'बेदम' भी निसार-ए-मुर्शिद-ए-मय-ख़ाना हो जाए
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
मैं ख़र्क़-ए-आदत-ए-पीर-ए-मुग़ाँ का क़ाएल हूँ
कि ब'अद-ए-ख़र्क़ किया इल्तियाम शीशे में
मज़ाक़ बदायूनी
ग़ज़ल
मैं हर नक़्श-ए-क़दम पर झूम के सज्दे में गिरता हूँ
रहे क्यों एहतिराम-ए-कूचा-ए-पीर-ए-मुग़ाँ बाक़ी
अफ़क़र मोहानी
ग़ज़ल
ठहर ऐ गर्दिश-ए-अय्याम हम भी साथ चलते हैं
उठा लेने दे फ़ैज़-ए-सोहबत-ए-पीर-ए-मुग़ाँ पहले
अर्श सहबाई
ग़ज़ल
'नज़ीर' हूँ वो शराबी ब-फ़ैज़-ए-पीर-ए-मुग़ाँ
निगाह डाल दूँ जिस पर वो लड़खड़ा के चले
नज़ीर बनारसी
ग़ज़ल
फिरे आते हैं मस्ताँ दर-गह-ए-पीर-ए-मुग़ाँ सेती
किया था ख़ाना वीराँ शैख़ मयख़ाने पे क्या गुज़रा
वली उज़लत
ग़ज़ल
ग़लत है हम-नफ़सो उन का ज़िंदगी में शुमार
जो दिन ब-ख़िदमत-ए-पीर-ए-मुग़ाँ नहीं गुज़रे