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ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
अब कहीं कोई ठिकाना ही नहीं जुज़ कू-ए-यार
मुर्तद-ए-काअबा हुआ मर्दूद-ए-बुत-ख़ाना हुआ
हातिम अली मेहर
ग़ज़ल
बुरा हो बद-गुमानी का वो नामा ग़ैर का समझा
हमारे हाथ में तो परचा-ए-अख़बार था क्या था
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
रफ़ू किया किए चाक-ए-वफ़ा-ओ-तार-ए-क़बा
वो रूठते रहे और हम उन्हें मनाए गए
राम अवतार गुप्ता मुज़्तर
ग़ज़ल
जुब्बा-फ़रसा-ए-दर-ए-का'बा थे कल तक तो 'ज़हीर'
गिरते पड़ते हुए आज आते हैं मयख़ाने से
ज़हीर देहलवी
ग़ज़ल
जबीन-ए-शौक़ पाबंद-ए-त’अय्युन हो नहीं सकती
मज़ाक़-ए-जुस्तुजू-ए-दैर-ओ-का'बा और ही कुछ है
हक़्क़ी हज़ीं
ग़ज़ल
अगर कुछ आश्ना होता मज़ाक़-ए-जब्हा-साई से
तो संग-ए-आस्तान-ए-का'बा जा मिलता जबीनों में
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
नमाज़-ए-अहल-ए-उलफ़त बे-नियाज़-ए-दैर-ओ-काअबा है
गवाही दी जहाँ दिल ने वहीं हम ने जबीं रख दी
सिराज लखनवी
ग़ज़ल
सब्ज़ पोशाक पे सुर्ख़ी सी उभर आई है
वाली-ए-हुर्मत-ए-का'बा तिरी ज़ुन्नार पे ख़ाक