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ग़ज़ल
ख़िज़्र है बहरी मुसाफ़िर का मनार-ए-रौशनी
है जहाज़ों के लिए रहबर धुआँ बत्ती चराग़
अहमद हुसैन माइल
ग़ज़ल
मुसाहिब और मुंसिफ़ तो ब-ज़ाहिर ज़ुल्म करते हैं
पस-ए-पर्दा रज़ा-ए-ज़िल्ल-ए-सुब्हानी भी होती है
तारिक़ क़मर
ग़ज़ल
वो जिन के पाँव में चल चल के पड़ गए छाले
वो राह-ए-इश्क़ नहीं भूक के मुसाफ़िर हैं