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ग़ज़ल
लरज़ उठते हैं कौनैन ऐ 'मुशीर' अंजाम-ए-उल्फ़त पर
जबीन-ए-शौक़ उस के दर से जब नाकाम आती है
मुशीर झंझान्वी
ग़ज़ल
मुशीर झंझान्वी
ग़ज़ल
आतिश-ए-जज़्बात से रौशन हे दुनिया-ए-'मुशीर'
जिस्म के आज़र-कदे में नूर बन जाती है आग
मुशीर झंझान्वी
ग़ज़ल
नज़रों की ज़िद से यूँ तो मैं ग़ाफ़िल नहीं रहा
पहलू में ऐ 'मुशीर' मगर दिल नहीं रहा