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ग़ज़ल
कोई ख़ुश-ज़ौक़ ही 'शाहिद' ये नुक्ता जान सकता है
कि मेरे शेर और नख़रे तुम्हारे एक जैसे हैं
सरफ़राज़ शाहिद
ग़ज़ल
गुज़िश्ता बरस सब के नख़रे उठाए मगर कुछ न पाया
नहीं मुझ को करनी मोहब्बत किसी से यकुम जनवरी से
फख़्र अब्बास
ग़ज़ल
ज़माने-भर के तुम को नाज़-ओ-नख़रे क्यूँ उठाने हैं
ख़ुदा से हो न वाबस्ता तो डर अच्छा नहीं लगता