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ग़ज़ल
क़रार-ओ-बे-क़रारी लाज़िम-ओ-मलज़ूम हैं दोनों
न 'फ़रमान' इस पे हर्फ़ आए न उस पर कोई बार आए
फ़रमान ज़ियाई सिरोजनी
ग़ज़ल
मिरा प्यारा है ना-फ़रमाँ हमेशा और प्यारों में
नहीं देखा कसू ने लाला-रू ऐसा हज़ारों में
उबैदुल्लाह ख़ाँ मुब्तला
ग़ज़ल
बाग़ी ना-फ़रमान बनी और कभी कलंक का टीका
हक़ की ख़ातिर जब भी किसी उसूल पे अड़ गई बेटी
समीना असलम समीना
ग़ज़ल
हो ना-फ़रमान बेटा तो सुकूँ घर में नहीं रहता
ये ग़म माँ-बाप के दिल के लिए नासूर होता है
ज़ाहिद कोंचवी
ग़ज़ल
नहीं इस साल वो ख़ूनीं-नयन भूरे अलक वाला
लगो लाला को आग और हो जो ना-फ़रमाँ का मुँह काला
वली उज़लत
ग़ज़ल
मचलते खेलते और नाज़ फ़रमाते हुए आना
ब-ज़ो'म-ए-हुस्न फिर हर शय को ठुकराते हुए आना
धर्मपाल गुप्ता वफ़ा देहलवी
ग़ज़ल
तग़ाफ़ुल तर्क कर डालो तकल्लुफ़ अब न फ़रमाओ
लब-ए-जाँ है मरीज़-ए-तालिब-ए-जल्वा चले आओ