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ग़ज़ल
थीं बनात-उन-नाश-ए-गर्दुं दिन को पर्दे में निहाँ
शब को उन के जी में क्या आई कि उर्यां हो गईं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
क़दम यूँ बे-ख़तर हो कर न मय-ख़ाने में रख देना
बहुत मुश्किल है जान ओ दिल को नज़राने में रख देना
वासिफ़ देहलवी
ग़ज़ल
गुज़र इस हुज्रा-ए-गर्दूं से हो कीधर अपना
क़ैद-ख़ाना है 'अजब गुम्बद-ए-बे-दर अपना
जुरअत क़लंदर बख़्श
ग़ज़ल
जाम गर्दिश में है दर-बंद हैं मय-ख़ानों के
कुछ फ़रिश्ते हैं यहाँ रूप में इंसानों के
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
कौन ये नासेह को समझाए ब-तर्ज़-ए-दिल-नशीं
इश्क़ सादिक़ हो तो ग़म भी बे-मज़ा होता नहीं
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
तुझे क्या बताऊँ मैं हम-नशीं मिरी ज़िंदगी का जो हाल है
न मसर्रतों की कोई ख़ुशी न ग़मों का कोई मलाल है
शफ़ीक़ बरेलवी
ग़ज़ल
नहीं ये बेद-ए-मजनूँ गर्दिश-ए-गरदून-ए-गर्दां ने
बनाया है शजर क्या जानिए किस मू परेशाँ को
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
कोई रहबर नहीं मिलता कोई रहज़न ही मिल जाए
हमेशा हम-सफ़र आख़िर ये गर्द-ए-कारवाँ क्यों हो
नसीम अंसारी
ग़ज़ल
कोई दम उन को निगाहों का इशारा न मिला
ज़िंदगी भर हमें जीने का सहारा न मिला