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ग़ज़ल
मानिंद-ए-ख़ामा तेरी ज़बाँ पर है हर्फ़-ए-ग़ैर
बेगाना शय पे नाज़िश-ए-बेजा भी छोड़ दे
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
शौक़ है सामाँ-तराज़-ए-नाज़िश-ए-अरबाब-ए-अज्ज़
ज़र्रा सहरा-दस्त-गाह ओ क़तरा दरिया-आश्ना
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
अर्श मलसियानी
ग़ज़ल
मुक़र्रर कुछ न कुछ इस में रक़ीबों की भी साज़िश है
वो बे-परवा इलाही मुझ पे क्यूँ गर्म-ए-नवाज़िश है
हसरत मोहानी
ग़ज़ल
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
अर्सा-ए-हश्र में है आज क़यामत की गिरफ़्त
अब बताए तो कोई नाज़िश-ए-तक़्वा क्या है
मोहम्मद यूसुफ़ रासिख़
ग़ज़ल
फूट चुकी हैं सुब्ह की किरनें सूरज चढ़ता जाएगा
रात तो ख़ुद मरती है सितारो तुम को कौन बचाएगा
नाज़िश प्रतापगढ़ी
ग़ज़ल
उस बे-निशाँ का आज निशाँ ढूँडते हैं आप
सुनिए वही जो नाज़िश-ए-अहल-ए-क़ुबूर था
मिर्ज़ा अल्ताफ़ हुसैन आलिम लखनवी
ग़ज़ल
सदियाँ हैं कि गुज़री ही चली जाती हैं 'नाज़िश'
हैं रोज़-ओ-मह-ओ-साल कि चुप-चाप खड़े हैं
नाज़िश प्रतापगढ़ी
ग़ज़ल
मिरा अश्क-ए-ख़ूँ है नाज़िश मिरे तज्रबे का हासिल
जो वुफ़ूर-ए-ग़म में हँसता तो ये शाहकार होता
नाज़िश हैदरी
ग़ज़ल
बहुत बुलंद हुआ तमकनत से ताज-ए-शही
कुलाह-ए-फ़क़्र मगर नाज़िश-ए-नमद में रही