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ग़ज़ल
शाम हुए ख़ुश-बाश यहाँ के मेरे पास आ जाते हैं
मेरे बुझने का नज़्ज़ारा करने आ जाते होंगे
जौन एलिया
ग़ज़ल
हम भी ऐ जान-ए-मन इतने तो नहीं नाकारा
कभी कुछ काम तू हम को भी तो फ़रमाया कर
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
कभी सर फोड़ने देती नहीं दीवार से 'ताबिश'
ये क्या दीवानगी है जो हमें नाकारा रखती है
अब्बास ताबिश
ग़ज़ल
किस दिन दामन खींच के उन ने यार से अपना काम लिया
मुद्दत गुज़री देखते हम को 'मीर' भी इक नाकारा है
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
रात-भर जो सामने आँखों के वो मह-पारा था
ग़ैरत-ए-महताब अपना दामन-ए-नज़्ज़ारा था
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
सुना है कूच तो उन का पर इस को क्या कहिए
ज़बान-ए-ख़ल्क़ को नक़्क़ारा-ए-ख़ुदा कहिए
वाजिद अली शाह अख़्तर
ग़ज़ल
यही इक दिल है बेचारा भला है या कि नाकारा
अगरचे है ये आवारा व लेकिन है वफ़ा-परवर