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ग़ज़ल
हम न कहते थे कि नक़्श उस का नहीं नक़्क़ाश सहल
चाँद सारा लग गया तब नीम-रुख़ सूरत हुई
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
करिश्मे हैं कि नक़्काश-ए-अज़ल नैरंगियाँ तेरी
जहाँ में माइल-ए-रंग-ए-फ़ना हर नक़्श-ए-हस्ती है
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
क्यूँके नक़्काश-ए-अज़ल ने नक़्श अबरू का किया
काम है इक तेरे मुँह पर खींचना शमशीर का
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
इक ख़ाक का तूदा है पर अज़्मत-ए-दुनिया है
नक़्क़ाश-ए-हक़ीक़त ने क्या नक़्श तराशा है