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ग़ज़ल
टेढ़ी नर्दें उल्टे ख़ाने मद्द-ए-मुक़ाबिल बे-उस्लूब
ये चौसर का खेल भी क्या है चाल चलो तो मुँह की खाओ
ज़हीर काश्मीरी
ग़ज़ल
दिल ये कहता है कि शायद है फ़सुर्दा तू भी
दिल की क्या बात करें दिल तो है नादाँ जानाँ
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
चारागरी बीमारी-ए-दिल की रस्म-ए-शहर-ए-हुस्न नहीं
वर्ना दिलबर-ए-नादाँ भी इस दर्द का चारा जाने है
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
मिरी नज़रें भी ऐसे क़ातिलों का जान ओ ईमाँ हैं
निगाहें मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
हाल-ए-दिल मुझ से न पूछो मिरी नज़रें देखो
राज़ दिल के तो निगाहों से अदा होते हैं
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
मुझ से नज़रें तो मिलाओ कि हज़ारों चेहरे
मेरी आँखों में सुलगते हैं सवालों की तरह
जाँ निसार अख़्तर
ग़ज़ल
बीत गया सावन का महीना मौसम ने नज़रें बदलीं
लेकिन इन प्यासी आँखों से अब तक आँसू बहते हैं
हबीब जालिब
ग़ज़ल
मैं तो इस ख़ाना-बदोशी में भी ख़ुश हूँ लेकिन
अगली नस्लें तो न भटकें उन्हें घर भी देना