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ग़ज़ल
फ़र्क़-ए-नौइयत है लेकिन इश्क़ भी मुख़्तार है
मुस्कुरा सकते हैं वो आँसू बहा सकता हूँ मैं
सहर रामपुरी
ग़ज़ल
था दरबार-ए-कलाँ भी उस का नौबत-ख़ाना उस का था
थी मेरे दिल की जो रानी अमरोहे की रानी थी
जौन एलिया
ग़ज़ल
देखते ही किसी काफ़िर को बिगड़ जाती है
मैं जो चाहूँ भी तो रहती नहीं निय्यत अच्छी
रियाज़ ख़ैराबादी
ग़ज़ल
फ़ितरत मेरी इश्क़-ओ-मोहब्बत क़िस्मत मेरी तंहाई
कहने की नौबत ही न आई हम भी किसू के हो लें हैं