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ग़ज़ल
शराब पी चुके बे-चारे को इजाज़त दो
खड़ा है देर से रुख़्सत को ऐ निगार लिहाज़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
वाइ'ज़ शराब-ओ-हूर की उल्फ़त में ग़र्क़ है
है सर से पाँव तक ये सितम-गर तमाम हिर्स
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
है मिरी ज़िंदगी का राज़ यही
ग़र्क़-ए-हर-मौजा-ए-शराब हूँ मैं