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ग़ज़ल
कल वाइ'ज़ों के हाँ भी तिरा ज़िक्र-ए-ख़ैर था
ये नेक-बख़्त क्यों तिरे मुश्ताक़ हो गए
सय्यद यूनुस एजाज़
ग़ज़ल
नेक-ओ-बद जब तिरी मर्ज़ी पे हुए हैं मौक़ूफ़
बख़्त कहते हैं किसे और ये क़िस्मत क्या है
जमीला ख़ुदा बख़्श
ग़ज़ल
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
कल 'जहाँदार' हम और यार थे टुक मिल बैठे
बख़्त-ए-ना-साज़ ने फिर आज बिठाया तन्हा
मिर्ज़ा जवाँ बख़्त जहाँदार
ग़ज़ल
इस हस्ती के अँधियारों ने बख़्त को ऐसे घेरा था
अपनी सदा तक उजड़ गई थी दिल की नौहा-ख़्वानी में