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ग़ज़ल
जी में है फोड़ दूँ मैं मीर की दोनों वल्लाह
घूरता फाड़ के दीदे है निगोड़ा कैसा
मोहसिन ख़ान मोहसिन
ग़ज़ल
जहान भर की तमाम आँखें निचोड़ कर जितना नम बनेगा
ये कुल मिला कर भी हिज्र की रात मेरे गिर्ये से कम बनेगा
उमैर नजमी
ग़ज़ल
अब भी भर सकते हैं मय-ख़ाने के सब जाम-ओ-सुबू
मेरा भीगा हुआ दामन जो निचोड़ा जाए
मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद
ग़ज़ल
ये बयान-ए-हाल ये गुफ़्तुगू है मिरा निचोड़ा हुआ लहू
अभी सुन लो मुझ से कि फिर कभू न सुनोगे ऐसी कहानियाँ
कलीम आजिज़
ग़ज़ल
यक-क़तरा ख़ूँ बग़ल में है दिल मिरी सो उस को
पलकों से तेरी ख़ातिर क्यूँ-कर निचोड़ डालूँ