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ग़ज़ल
ये तो अभी आग़ाज़ है जैसे इस पिन्हा-ए-हैरत का
आँख ने और सँवर जाना है रंग ने और निखरना है
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
हो न मायूस कि है फ़त्ह की तक़रीब शिकस्त
क़ल्ब-ए-मोमिन का मिरी जान निखरना है यही
मौलाना मोहम्मद अली जौहर
ग़ज़ल
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू हो कर तिरे कूचे से हम निकले