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ग़ज़ल
यही परचम निशान-ए-लश्कर-ए-बातिल न बन जाए
हम इक ख़ंजर सही लेकिन कफ़-ए-सफ़्फ़ाक से निकलें
मोहम्मद अहमद रम्ज़
ग़ज़ल
बहुत नाज़ुक हैं मेरे सर्व क़ामत तेग़ज़न लोगो
हज़ीमत ख़ुर्दगी मेरी सफ़-ए-लश्कर पे लिख देना
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
निशान-ए-ज़ख़्म पे निश्तर-ज़नी जो होने लगी
लहू में ज़ुल्मत-ए-शब उँगलियाँ भिगोने लगी
बद्र-ए-आलम ख़लिश
ग़ज़ल
गुम हुए जाते हैं धड़कन के निशाँ हम-नफ़सो
है दर-ए-दिल पे कोई संग-ए-गिराँ हम-नफ़सो
बद्र-ए-आलम ख़लिश
ग़ज़ल
वो मिटा देंगे हमारी अज़्मतों का हर निशाँ
चाँद-तारों से हमारा नक़्श-ए-पा ले जाएँगे