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ग़ज़ल
मिरे चारों तरफ़ एक आहनी दीवार क्यूँ है
अगर सच्चा हूँ मैं सच का मुक़द्दर हार क्यूँ है
याक़ूब तसव्वुर
ग़ज़ल
अख्तर सईदी
ग़ज़ल
मसर्रत की घटाएँ हैं वफ़ूर-ए-शादमानी है
नुमायाँ आज गुलशन में बहार-ए-ज़िंदगानी है
अब्दुल क़य्यूम ज़की औरंगाबादी
ग़ज़ल
शहर की इस भीड़ में हूँ बे-निशाँ होते हुए
देखता रहता हूँ ख़ुद को राएगाँ होते हुए