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ग़ज़ल
आसमाँ वाले हैं क्यों महव-ए-समाअ'त ऐ 'मुजीब'
कौन गोया ये सर-ए-नोक-ए-सिनाँ होता है
सय्यद मुजीबुल हसन
ग़ज़ल
कुछ जो कहते हैं तो कटती है ज़बाँ क्या कहिए
सरगुज़श्त अपनी सर-ए-नोक-ए-सिनाँ क्या कहिए
हामिद इलाहाबादी
ग़ज़ल
मिरा सर देख कर बोले मिरे अहबाब दुश्मन से
ये किस सरकश का सर है जो सर-ए-नोक-ए-सिनाँ पाया
अमजद अशरफ़ मल्ला
ग़ज़ल
हमारी आरज़ू है एक पल बाहोँ में भर लीजे
कि कुछ ही देर में हम रौनक़-ए-नोक-ए-सिनाँ होंगे