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ग़ज़ल
नहीं ये सोचना इस खेल में क्या फ़ैसला होगा
लगा ली शर्त तो अब ओखली में सर दिया जाए
राघवेंद्र द्विवेदी
ग़ज़ल
मैं तो इस ख़ाना-बदोशी में भी ख़ुश हूँ लेकिन
अगली नस्लें तो न भटकें उन्हें घर भी देना
मेराज फ़ैज़ाबादी
ग़ज़ल
वहशतें कैसी हैं ख़्वाबों से उलझता क्या है
एक दुनिया है अकेली तू ही तन्हा क्या है