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ग़ज़ल
बज़्म से साक़ी के हम से रिंद निकले पाक-साफ़
अपना अब का'बे में पहुँचेगा मुसल्ला इक और
हातिम अली मेहर
ग़ज़ल
पाक-साफ़ ऐसी है जिस ने पी फ़रिश्ता बन गया
ज़ाहिदो ये हूर के दामन में है छानी हुई
रियाज़ ख़ैराबादी
ग़ज़ल
माशूक़-ए-जावेदाँ को रिझाने के वास्ते
कपड़ों से बढ़ के क़ल्ब-ओ-जिगर पाक-साफ़ रख
मोहम्मद शफ़ी सीतापूरी
ग़ज़ल
देखो उस ने क़दम क़दम पर साथ दिया बेगाने का
'अख़्तर' जिस ने अहद किया था तुम से साथ निभाने का
अख्तर लख़नवी
ग़ज़ल
ग़ैज़ का सूरज था सर पर सच को सच कहता तो कौन
रास आता किस को महशर सच को सच कहता तो कौन
एहतराम इस्लाम
ग़ज़ल
गुलों पर साफ़ धोका हो गया रंगीं कटोरी का
रग-ए-गुल में जो आलम था तिरी अंगिया की डोरी का
असद अली ख़ान क़लक़
ग़ज़ल
बे-सदा आ कर लगा और हो गया सीने के पार
ये ख़दंग-ए-साफ़ था किस बे-निशाँ की शस्त का
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
मिरे वजूद का आईना साफ़ उसी ने किया
उसी को करना था आख़िर मुआ'फ़ उसी ने किया