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ग़ज़ल
हर संग भारी होता है अपने मक़ाम पर
इंसाँ ख़ला में पहुँचा तो पासंग रह गया
सैयद फ़ख़्रुद्दीन बल्ले
ग़ज़ल
कौन याँ बाज़ार-ए-ख़ूबी में तिरा हम-संग है
हुस्न के मीज़ाँ में तेरे महर-ओ-मह पासंग है
मीर मोहम्मदी बेदार
ग़ज़ल
बहुत छोटा सही ये दिल मगर 'अंजुम' ये मुमकिन है
तवाज़ुन इश्क़ का अब तो यही पासंग बदलेगा
फ़ारूक़ अंजुम
ग़ज़ल
पासंग हैं ला'ल उस के भी जिस संग को पहुँचे
इक क़तरा मिरे अश्क के ख़ूँबाब की मीरास
वलीउल्लाह मुहिब
ग़ज़ल
गिराँ-जानी भी इस संजीदगी के साथ है मुझ में
कि कोह-ए-कोहकन पासंग मेरा हो नहीं सकता
मीर अली औसत रशक
ग़ज़ल
पहले अपने क़द को देखें फिर मुझ पर तन्क़ीद करें
उन का ज़िक्र भी क्यों करते हो जो मेरे पासंग नहीं
एजाज़ रहमानी
ग़ज़ल
तू जो तुल बैठे तो पल्ले चाहिए हों महर-ओ-माह
ऐसी मीज़ाँ के तईं लाज़िम है पासंग-ए-फ़लक