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ग़ज़ल
ख़ाक-ए-वहशत सर पर डालूँ मैं पागल हो जाऊँ
या फिर ज़र्फ़ का सागर छोड़ूँ और बादल हो जाऊँ
सज्जाद सय्यद
ग़ज़ल
मेरे जैसे इस बस्ती में और भी पागल रहते हैं
सब ने आँखें गिरवी रख कर आधे ख़्वाब ख़रीदे हैं
दानिश अज़ीज़
ग़ज़ल
अब क्या गिला करें कि मुक़द्दर में कुछ न था
हम ग़ोता-ज़न हुए तो समुंदर में कुछ न था
सैफ़ ज़ुल्फ़ी
ग़ज़ल
भूक इफ़्लास से तहज़ीबों के दिल बोझल हो जाते हैं
खेत उजड़ जाएँ तो बस्ते आँगन जंगल हो जाते हैं