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ग़ज़ल
सारी गली सुनसान पड़ी थी बाद-ए-फ़ना के पहरे में
हिज्र के दालान और आँगन में बस इक साया ज़िंदा था
जौन एलिया
ग़ज़ल
आए हैं 'मीर' काफ़िर हो कर ख़ुदा के घर में
पेशानी पर है क़श्क़ा ज़ुन्नार है कमर में
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
डरे क्यूँ मेरा क़ातिल क्या रहेगा उस की गर्दन पर
वो ख़ूँ जो चश्म-ए-तर से उम्र भर यूँ दम-ब-दम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
दिन के पहले पहर में ही अपना बिस्तर छोड़ कर
रौशनी निकली है नींद अपनी फ़लक पर छोड़ कर
स्वप्निल तिवारी
ग़ज़ल
जफ़ा-ओ-जौर-ए-गुल-चीं से चमन मातम-कदा सा है
फड़कते हैं क़फ़स की तरह आज़ादी में पर वाले