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ग़ज़ल
उन की नज़रों का वो पैवस्त-ए-रग-ए-जाँ होना
दिल जिगर दोनों का शर्मिंदा-ए-एहसाँ होना
हामिद इलाहाबादी
ग़ज़ल
चाहिए था इन्हें पैवस्त-ए-रग-ए-जाँ होना
हो चलें आप के बीमार की आँखें बे-नूर
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
ग़ज़ल
नफ़स की आमद-ओ-शुद का ये आलम है जुदाई में
कि नश्तर जैसे पैवस्त-ए-रग-ए-जाँ होते जाते हैं
बिस्मिल सईदी
ग़ज़ल
जो तीर कि बन जाए इक जुज़्व-ए-दिल-ए-बिस्मिल
पैवस्त-ए-रग-ए-जाँ हो उस तीर को क्या कहिए
पन्ना लाल नूर
ग़ज़ल
तू अगर ग़ैर है नज़दीक-ए-रग-ए-जाँ क्यूँ है
ना-शनासा है तो फिर महरम-ए-पिन्हाँ क्यूँ है
ज़हीर काश्मीरी
ग़ज़ल
फिर कोई ख़लिश नज़्द-ए-राग-ए-जाँ तो नहीं है
फिर दिल में वही नश्तर-ए-मिज़्गाँ तो नहीं है
राम कृष्ण मुज़्तर
ग़ज़ल
एक भी तीर-ए-नज़र तेरा ख़ता जाता नहीं
सब हुए जाते हैं पैवस्त-ए-रग-ए-जाँ जानाँ