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ग़ज़ल
देख ज़िंदाँ से परे रंग-ए-चमन जोश-ए-बहार
रक़्स करना है तो फिर पाँव की ज़ंजीर न देख
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
ख़याल उन का परे है अर्श-ए-आज़म से कहीं साक़ी
ग़रज़ कुछ और धुन में इस घड़ी मय-ख़्वार बैठे हैं
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
मैं अदम से भी परे हूँ वर्ना ग़ाफ़िल बार-हा
मेरी आह-ए-आतिशीं से बाल-ए-अन्क़ा जल गया
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
बाल-ओ-पर-ए-ख़याल को अब नहीं सम्त-ओ-सू नसीब
पहले थी इक अजब फ़ज़ा और जो पुर-फ़ज़ा भी थी
जौन एलिया
ग़ज़ल
न मारा आप को जो ख़ाक हो इक्सीर बन जाता
अगर पारे को ऐ इक्सीर गर मारा तो क्या मारा