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ग़ज़ल
यूँ पीर-ए-मुग़ाँ शेख़-ए-हरम से हुए यक-जाँ
मय-ख़ाने में कम-ज़र्फ़ी-ए-परहेज़ बहुत है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
क्यूँ न हो चश्म-ए-बुताँ महव-ए-तग़ाफ़ुल क्यूँ न हो
या'नी उस बीमार को नज़्ज़ारे से परहेज़ है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
मुनइम की तरह पीर-ए-हरम पीते हैं वो जाम
रिंदों को भी जिस जाम से परहेज़ बहुत है
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
ख़बर भी है तुझे मय-ख़्वार तो बदनाम है साक़ी
दबा कर कितनी बोतल ले गए परहेज़-गार अब तक