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ग़ज़ल
आईना रू-ब-रू रख और अपनी सज बनाना
क्या ख़ुद-पसंदियाँ हैं क्या ख़ुद-नुमाईयाँ हैं
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
ग़ज़ल
कभी पाबंदियों से छुट के भी दम घुलने लगता है
दर-ओ-दीवार हूँ जिस में वही ज़िंदाँ नहीं होता
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
इस को जन्नत में क़दम रखने पे है पाबंदियाँ
जिस किसी बद-ज़ेहन की भी काफ़िरी पोशाक है