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ग़ज़ल
कुत्तों का इक हुजूम जिलौ में है रात दिन
पतला दयार-ए-हुस्न में आशिक़ का हाल है
क़ाज़ी गुलाम मोहम्मद
ग़ज़ल
मुअ'म्मा है वो जिस के ग़म में मेरा हाल पतला है
नज़र के सामने आता है ज़ालिम हर घड़ी आधा
वहिद अंसारी बुरहानपुरी
ग़ज़ल
यक़ीं आया किया जब उस के तईं पानी सीं भी पतला
हमारे अश्क की गर्मी में कुछ रखता था शक दरिया
आबरू शाह मुबारक
ग़ज़ल
ज़ोफ़ से हाल ये पतला है रह-ए-उल्फ़त में
सैल-ए-गिर्या पे भी हासिल है तक़द्दुम मुझ को
दत्तात्रिया कैफ़ी
ग़ज़ल
तुम भी जिस को देख रहे थे वो जो एक अकेला था
दुबला पतला उलझा हैराँ अरमानों का मेला था
यूसुफ़ तक़ी
ग़ज़ल
गुलों के शो’ला-सिफ़त मंज़रों में छुप सा गया
वो दुबला-पतला बदन ख़ुशबुओं में छुप सा गया
शाद शाद नूही
ग़ज़ल
तुझे दुश्मनों की ख़बर न थी मुझे दोस्तों का पता नहीं
तिरी दास्ताँ कोई और थी मिरा वाक़िआ कोई और है
सलीम कौसर
ग़ज़ल
पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
बहुत बेबाक आँखों में त'अल्लुक़ टिक नहीं पाता
मोहब्बत में कशिश रखने को शर्माना ज़रूरी है
वसीम बरेलवी
ग़ज़ल
जिसे सूरत बताते हैं पता देती है सीरत का
इबारत देख कर जिस तरह मा'नी जान लेते हैं