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ग़ज़ल
देखो तो पेट बन गया आख़िर ग़ुबारा गैस का
खाते हो इतना गोश्त क्यों पीते हो इतनी चाय क्यों
कैफ़ अहमद सिद्दीकी
ग़ज़ल
नया कम-ख़्वाब का लहँगा झमकते ताश की अंगिया
कुचें तस्वीर सी जिन पे लगा गोटा कनारी है
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
ये हुस्न है आह या क़यामत कि इक भभूका भभक रहा है
फ़लक पे सूरज भी थरथरा कर मुँह उस का हैरत से तक रहा है
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
याद आता है वो हर्फ़ों का उठाना अब तक
जीम के पेट में एक नुक्ता है और ख़ाली हे