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ग़ज़ल
आए हैं 'मीर' काफ़िर हो कर ख़ुदा के घर में
पेशानी पर है क़श्क़ा ज़ुन्नार है कमर में
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
पर्दे पर्दे में मोहब्बत दुश्मन-ए-जानी हुई
ये ख़ुदा की मार क्या ऐ शौक़-ए-पिन्हानी हुई
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
बदन कजला गया तो दिल की ताबानी से निकलूँगा
मैं सूरज बन के इक दिन अपनी पेशानी से निकलूँगा
ज़फ़र गोरखपुरी
ग़ज़ल
न पाया दर्दमंद-ए-दूरी-ए-यारान-ए-यक-दिल ने
सवाद-ए-ख़त्त-ए-पेशानी से नुस्ख़ा मोम्याई का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
चीन पेशानी पे है मौज-ए-तबस्सुम लब में
ऐसे हँसमुख हैं कि ग़ुस्से में हँसा करते हैं