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ग़ज़ल
पीले पत्तों को सह-पहर की वहशत पुर्सा देती थी
आँगन में इक औंधे घड़े पर बस इक कव्वा ज़िंदा था
जौन एलिया
ग़ज़ल
ख़ार-ए-चमन थे शबनम शबनम फूल भी सारे गीले थे
शाख़ से टूट के गिरने वाले पत्ते फिर भी पीले थे
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
ग़ज़ल
खिड़की के टूटे शीशों पर एक कहानी लिखती हैं
मंढे हुए पीले काग़ज़ से छन कर आती दो-पहरें
इशरत आफ़रीं
ग़ज़ल
दर्द के पीले गुलाबों की थकन बाक़ी रही
जागती आँखों में ख़्वाबों की थकन बाक़ी रही