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ग़ज़ल
क़स्में तो सारी हो चुकीं बाक़ी रही है अब
पीपल तले के भुतने की शैतान की क़सम
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
कितने पीपल सूख गए हैं कितने दरिया ख़ुश्क हुए
कितने मौसम बीत गए हैं बादल को बहलाने में
हसन रिज़वी
ग़ज़ल
गाँव की धरती बाँझ हुई है पनघट सूना सूना है
पीपल के पत्तों में छुप कर ढूँढती है तन्हाई धूप
कैफ़ अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
हुसना सरवर
ग़ज़ल
तुम रसवंती नर्म लजीली ताज़ा कोंपल सब्ज़ कली
मैं पतझड़ का मारा पीपल सूख चले हैं पात मिरे