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ग़ज़ल
बढ़ गई मय पीने से दिल की तमन्ना और भी
सदक़ा अपना साक़िया यक जाम-ए-सहबा और भी
मुंशी अमीरुल्लाह तस्लीम
ग़ज़ल
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
कभी दिखलाए है पिंडे का लुत्फ़ और गात का आलम
कभी नज़दीक आ बालों की अपने बू सुंघाता है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
अगर सोने के पिंजड़े में भी रहता है तो क़ैदी है
परिंदा तो वही होता है जो आज़ाद रहता है
मुनव्वर राना
ग़ज़ल
सबा अफ़ग़ानी
ग़ज़ल
ज़ुबैर अली ताबिश
ग़ज़ल
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
अज्ञात
ग़ज़ल
ताबिश कानपुरी
ग़ज़ल
मय-ए-गुल-रंग लुटती यूँ दर-ए-मय-ख़ाना वा होता
न पीने की कमी होती न साक़ी से गिला होता