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ग़ज़ल
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
इस शह्र-ए-बे-ख़ता में ख़तावार मैं ही हूँ
या'नी गुलों के बीच में इक ख़ार मैं ही हूँ
प्रोफ़ेसर महमूद आलम
ग़ज़ल
किसी से कोई शिकवा है न दिल में कोई नफ़रत है
मिले हो तुम मुझे जब से ये दुनिया ख़ूबसूरत है
प्रोफ़ेसर महमूद आलम
ग़ज़ल
मोहब्बत बिकती हो गर शहर में ऐसी दुकाँ ढूँडें
कुदूरत दिल की धुलती हो जहाँ ऐसी दुकाँ ढूँडें
प्रोफ़ेसर महमूद आलम
ग़ज़ल
जब भी याद आई मुझे उस से मिलन की ख़ुशबू
मुझ को याद आई बहुत उस के बदन की ख़ुशबू
प्रोफ़ेसर महमूद आलम
ग़ज़ल
निगाह-ए-हुस्न जब गोया हो तो तस्वीर बनती है
दिगर ख़ूबी तो बस तस्वीर की तफ़्सीर होती है