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ग़ज़ल
कहीं कहीं से कुछ मिसरे एक-आध ग़ज़ल कुछ शेर
इस पूँजी पर कितना शोर मचा सकता था मैं
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
इसी मिट्टी में मिल जाएगी पूँजी उम्र भर की
गिरेगी जिस घड़ी दीवार-ए-जाँ कैसा लगेगा
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
दुनिया रक्खे चाहे फेंके ये है पड़ी ज़म्बील-ए-सुख़न
हम ने जितनी पूँजी जोड़ी रत्ती रत्ती छोड़ चले
क़ैसर-उल जाफ़री
ग़ज़ल
जाने हम पे क्या क्या बीती तन का लहू सब सर्फ़ हुआ
रुख़ की ज़र्दी भी है ग़नीमत अब तो अपनी यही पूँजी है
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
ग़ज़ल
लिखते लिखते लफ़्ज़ों से मेरी भी कुछ पहचान हुई
सारी उम्र की पूँजी ले कर आज हुनर तक आई हूँ
इरुम ज़ेहरा
ग़ज़ल
पूँजी-पतियों याद रखो वो दिन भी अब कुछ दूर नहीं
बंद तिजोरी में हर सिक्का अंगारा बन जाएगा