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ग़ज़ल
करा तो लूँगा इलाक़ा ख़ाली मैं लड़-झगड़ कर
मगर जो उस ने दिलों पे क़ब्ज़े किए हुए हैं
ज़िया मज़कूर
ग़ज़ल
आदमी को हश्र के मंज़र नज़र आने लगे
उस के क़ब्ज़े में जब इक ज़र्रे का जौहर आ गया
अहमद नदीम क़ासमी
ग़ज़ल
पी शौक़ से वाइ'ज़ अरे क्या बात है डर की
दोज़ख़ तिरे क़ब्ज़े में है जन्नत तिरे घर की
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
जी में क्या गुज़रा था कल जो आप रख क़ब्ज़े पे हाथ
ख़ूब सा घूरे मुझे और तन के बल खाने लगे
रंगीन सआदत यार ख़ाँ
ग़ज़ल
रंजूर अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
क़ब्ज़े में उन के शहर-ए-तिलिस्मात ही सही
खो जाऊँ क्या ख़ुदा की इबादत नहीं करूँ
अहमद कमाल परवाज़ी
ग़ज़ल
यूँ मुझे आप से अब करती है तक़दीर जुदा
जिस तरह जंग में हो क़ब्ज़े से शमशीर जुदा
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
अनवर निज़ामी जबल पुरी
ग़ज़ल
खींच देता मैं ज़माने पे मोहब्बत के नुक़ूश
मेरे क़ब्ज़े में अगर ख़ामा-ए-शहपर होता
हैदर अली जाफ़री
ग़ज़ल
क़ब्ज़े में जोश-ए-गुल न ख़िज़ाँ दस्तरस में है
राहत भी कब मिली है अगर वज्ह-ए-ग़म गई