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ग़ज़ल
जो जान करता है अपनी निसार-ए-क़ौम-ओ-वतन
उफ़ुक़ पे क़ौम की वो आफ़्ताब होता है
रंगेशवर दयाल सक्सेना सूफ़ी
ग़ज़ल
ख़ुदा को जाने ख़ुदा न माने वो बंदगी बंदगी नहीं है
जो दर्द-ए-क़ौम-ओ-वतन न जाने वो शायरी शायरी नहीं है
हसरत शादानी
ग़ज़ल
ये हमारी क़ौम ही क्या अस्ल क़ौम-ए-लूत है
वर्ना माज़ी को मिन-ओ-'अन कैसे दोहराए कोई
राहिब मैत्रेय
ग़ज़ल
ख़ुद-परस्ती हो रग-ओ-पय में सरायत जिन के
क़ौम-ओ-मिल्लत के वो मे'मार नहीं हो सकते