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ग़ज़ल
खड़ा हूँ यूँ किसी ख़ाली क़िले के सेहन-ए-वीराँ में
कि जैसे मैं ज़मीनों में दफ़ीने देख लेता हूँ
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
मैं ने कहा था उस से आगे छुपने की क्या सूरत होगी
उस ने कहा था डरते क्यूँ हो आगे क़िलए' बने हुए हैं
मोईन निज़ामी
ग़ज़ल
क़िले बर्बाद करता और पत्थर छोड़ जाता है
जहाँ जाता है ख़ूँ का इक समुंदर छोड़ जाता है
मधुवन ऋषि राज
ग़ज़ल
क़िले बर्बाद करता और पत्थर छोड़ जाता है
जहाँ जाता है ख़ूँ का इक समुंदर छोड़ जाता है
मधुवन ऋषि राज
ग़ज़ल
हमारे जिस्म के क़िल’ए की शाम जैसे ही आई
हज़ारों टीसों के ख़ंजर का ज़हर टूट पड़ा