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ग़ज़ल
हमारे 'अह्द की हैवानियत का सुर्ख़ क़िस्सा
क़ुरून-ए-जाहिलियत का फ़साना लग रहा है
सय्यद मसरूर जौहर
ग़ज़ल
किस नाम-ए-मुबारक ने मज़ा मुँह को दिया है
क्यूँ लब पे मिरे ज़मज़मा-ए-सल्ल-ए-अला है
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
ग़ज़ल
साबिर ज़फ़र
ग़ज़ल
लगने लगा था हाकिम-ए-आला ही ख़ुद-ग़रज़
ग़ैरों के हक़ में उस का अमल मुश्फ़िक़ाना था