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ग़ज़ल
ये 'अजब हवस का दयार है यहाँ 'आम अना का ख़ुमार है
मुझे अपने सहरा से प्यार है मुझे रास दर-ब-दरी रही
ख़लील-उर-रहमान राज़
ग़ज़ल
आशिक़ी शाइस्तगी-ओ-राज़-दारी का है नाम
ख़ुद भी बे-परवा न हो मुझ को भी बे-परवा न कर