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ग़ज़ल
रग-ओ-पय में जब उतरे ज़हर-ए-ग़म तब देखिए क्या हो
अभी तो तल्ख़ी-ए-काम-ओ-दहन की आज़माइश है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
कहाँ अब वो मौसम-ए-रंग-ओ-बू कि रगों में बोल उठे लहू
यूँही नागवार चुभन सी है कि जो शामिल-ए-रग-ओ-पै नहीं
नासिर काज़मी
ग़ज़ल
कहाँ हम भी रग-ओ-पै रखते हैं इंसाफ़ बहत्तर है
न खींचे ताक़त-ए-ख़म्याज़ा तोहमत ना-तवानी की