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ग़ज़ल
कू-ए-जानाँ में उसे है सज्दा-रेज़ी का जो शौक़
मेरी पेशानी रहीन-ए-नक़्श-ए-पा हो जाएगी
हकीम मोहम्मद अजमल ख़ाँ शैदा
ग़ज़ल
राह में सूरत-ए-नक़्श-ए-कफ़-ए-पा रहता हूँ
हर घड़ी बनने बिगड़ने को पड़ा रहता हूँ