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ग़ज़ल
सितम पे ख़ुश कभी लुत्फ़-ओ-करम से रंजीदा
सिखाईं तुम ने हमें कज-अदाइयाँ क्या क्या
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
शाद ओ ख़ुर्रम एक आलम को किया उस ने 'ज़फ़र'
पर सबब क्या है कि है रंजीदा ओ नाशाद तू
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
सुन जानाँ हम तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ और किसी दिन कर लेंगे
आज तुझे भी उजलत सी है हम भी कुछ रंजीदा हैं
इरफ़ान सत्तार
ग़ज़ल
किस किस मंज़र पर ख़ुद को रंजीदा कर लूँ सोचूँगा
हर मंज़र पर आँखें मेरी नौहा करती रहती हैं