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ग़ज़ल
तू ही संग-ए-मील है अपने लिए सुल्तान-'रश्क'
अपने ही रस्ते में जो हाइल है वो पत्थर भी तू
सुलतान रशक
ग़ज़ल
खो चुका है उस को जब तो ख़ुद ही ऐ सुल्तान-'रश्क'
अब धड़कता है दिल-ए-बे-मुद्दआ किस के लिए
सुलतान रशक
ग़ज़ल
अपने ख़द-ओ-ख़ाल देखूँ मैं भी ऐ सुल्तान-'रश्क'
मेरी आँखों से मगर ऐ ख़्वाब के मंज़र निकल