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ग़ज़ल
बे-सदा बस्ती की रस्में थीं यही 'मोहसिन' मिरे
मैं ज़बाँ रखता था मुझ को बे-ज़बाँ होना ही था
मोहसिन नक़वी
ग़ज़ल
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
इश्क़ की अपनी ही रस्में हैं दोस्त की ख़ातिर हाथों में
जीतने वाले पत्ते भी हों फिर भी हरने लगते हैं
अमजद इस्लाम अमजद
ग़ज़ल
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
रस्में इस अंधेर-नगर की नई नहीं ये पुरानी हैं
मेहर पे डालो रात का पर्दा माह को रौशन रहने दो
आरज़ू लखनवी
ग़ज़ल
किसी के साथ हैं रस्में किसी के साथ हैं क़समें
किसी के साथ जीना है किसी को जीते रहते हैं
आलोक श्रीवास्तव
ग़ज़ल
किश्वर-ए-इश्क़ की रस्में अजब उल्टी देखीं
सल्तनत करते हैं सब दिल के चुराने वाले
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
ग़ज़ल
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
गईं यारों से वो अगली मुलाक़ातों की सब रस्में
पड़ा जिस दिन से दिल बस में तिरे और दिल के हम बस में
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
हर बात में ये जल्दी है हर नुक्ते में इसरार
दुनिया से निराली हैं ग़रज़ तेरी तो रस्में
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
रस्में ही बदल दी हैं ज़माने ने दिलों की
किस वज़्अ से उस बज़्म में ऐ दीदा-ए-तर जाएँ