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ग़ज़ल
'रज़िया' क्या काम हमें गंज-ए-गिराँ-माया से
हम से लोगों के लिए शेर-ख़ज़ाने हैं बहुत
रज़िया फ़सीह अहमद
ग़ज़ल
बयाबाँ हो कि सहरा हो मुझे तेरा सहारा हो
तू ही ख़ुर्शीद हो मेरा तू ही मेरा सितारा हो
रज़िया हलीम जंग
ग़ज़ल
दरियाओं में रहते हुए प्यासा तो नहीं हूँ
प्यासा जो है मुद्दत से वो सहरा तो नहीं हूँ
रज़िया सुबहान
ग़ज़ल
नूर-ए-सुल्ताना-ओ-रज़िया की हमिय्यत की क़सम
गुम्बद-ए-चर्ख़ को इक बार तो लर्ज़ां कर दें
सईदा जहाँ मख़्फ़ी
ग़ज़ल
तुम्हीं बताओ वो कौन है जो हर एक लम्हा सता रहा है
न नींद रातों को आ रही है न चैन दिन को ही आ रहा है