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ग़ज़ल
मैं ये जानता था मिरा हुनर है शिकस्त-ओ-रेख़्त से मो'तबर
जहाँ लोग संग-ब-दस्त थे वहीं मेरी शीशागरी रही
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
शिकस्त-ओ-रेख़्त बदन की अब अपने बस में नहीं
उसे बताऊँ कि वो रम्ज़-आशना था बहुत
अख़्तर होशियारपुरी
ग़ज़ल
तज़्किरा लिखते हो क्या मेरी शिकस्त-ओ-रेख़्त का
लफ़्ज़ की बस्ती में मअ'नी को खंडर करते हो क्यूँ
इक़बाल साजिद
ग़ज़ल
शिकस्त-ओ-रेख़्त ज़माने की ख़ूब है 'मख़दूम'
ख़ुदी तो टूटी थी ख़ू-ए-बुताँ भी टूटी है
मख़दूम मुहिउद्दीन
ग़ज़ल
मुक़द्दर में मिरे 'सागर' शिकस्त-ओ-रेख़्त इतनी है
मैं जिस को अपना कह दूँ वो सितारा टूट जाता है
सलीम साग़र
ग़ज़ल
शिकस्त-ओ-रेख़्त का मंज़र मिरी आँखों में रहने दो
मुझे अपने ही ख़्वाबों की अभी क़ीमत चुकानी है
ज़ाकिर ख़ान ज़ाकिर
ग़ज़ल
शिकस्त-ओ-रेख़्त के बा-वस्फ़ हम खड़े हैं अभी
फ़सील-ए-शहर के देरीना बाम-ओ-दर की तरह