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ग़ज़ल
ज़हीर देहलवी
ग़ज़ल
वहीं चश्म-ए-हूर फड़क गई अभी पी न थी कि बहक गई
कभी यक-ब-यक जो छलक गई किसी रिंद-ए-मस्त के जाम से
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
दोस्त अहबाब से हँस बोल के कट जाएगी रात
रिंद-ए-आज़ाद हैं हम को शब-ए-फ़ुर्क़त कैसी
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
आक़िब साबिर
ग़ज़ल
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
है काल आँसुओं का क्यूँ चश्म-ए-ग़म में 'जज़्बी'
किस रिंद-ए-तिश्ना-लब का पैमाना हो गया मैं