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ग़ज़ल
मौज-ए-दरिया के लबों पर तिश्नगी है कर्बला
रेग-ए-साहिल पर तड़पती ज़िंदगी है कर्बला
नुज़हत अब्बासी
ग़ज़ल
रेग-ए-रवाँ की नर्म तहों को छेड़ती है जब कोई हवा
सूने सहरा चीख़ उठते हैं आधी आधी रातों को